दिल्ली। भारत समेत नौ उभरती अर्थव्यवस्थाओं को 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 50% की कमी लाने के लिए लगभग 2.2 लाख करोड़ डॉलर खर्च करने होंगे, जो उनकी संयुक्त जीडीपी का करीब 0.6% है। यह निष्कर्ष थिंक टैंक सेंटर फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक प्रोग्रेस की रिपोर्ट “नौ जी-20 उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं की जलवायु वित्त आवश्यकताएं: पहुंच के अंदर” में सामने आया है। रिपोर्ट ने इस धारणा को चुनौती दी है कि विकासशील देशों के लिए जलवायु लक्ष्यों को हासिल करना आर्थिक रूप से असंभव है।
अध्ययन में अर्जेंटीना, ब्राजील, चीन, भारत, इंडोनेशिया, मेक्सिको, रूस, दक्षिण अफ्रीका और तुर्की को शामिल किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार, इन देशों को ऊर्जा, परिवहन, स्टील और सीमेंट जैसे उच्च-उत्सर्जन वाले क्षेत्रों से कार्बन उत्सर्जन पूरी तरह समाप्त करने के लिए सालाना करीब 255 अरब डॉलर की आवश्यकता होगी। ये चार सेक्टर इन देशों के कुल कार्बन उत्सर्जन का लगभग आधा हिस्सा हैं।
यदि चीन को छोड़ दिया जाए, तो भारत सहित बाकी आठ देशों के लिए यह लागत घटकर 854 अरब डॉलर रह जाएगी। अध्ययन बताता है कि सस्ता अंतरराष्ट्रीय कर्ज और तकनीकी सहायता मिलने पर ये देश पारंपरिक ऊर्जा से स्वच्छ ऊर्जा की ओर तेजी से शिफ्ट हो सकते हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, ऊर्जा क्षेत्र को कार्बन मुक्त बनाना सबसे महंगा है, जिसकी औसत लागत 66 डॉलर प्रति टन आंकी गई है। स्टील सेक्टर में यह लागत 53 डॉलर और सीमेंट में 49 डॉलर प्रति टन है। वहीं सड़क परिवहन को इलेक्ट्रिक वाहनों में बदलने के लिए 459 अरब डॉलर और चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर की भारी जरूरत होगी।
विकासशील देश लगातार यह मांग कर रहे हैं कि विकसित देश अपने वित्तीय वादों को पूरा करें, क्योंकि जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने के लिए 2035 तक उन्हें हर साल करीब 1.3 लाख करोड़ डॉलर की आवश्यकता होगी।

